Friday 22 December 2017
Thursday 21 December 2017
जिस युद्ध में श्रीकृष्ण विद्यमान हों, उस युद्ध में भी धर्म का पालन नहीं हो सके, इससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि युद्ध कभी भी धर्म के पथ पर रहकर लड़ा नहीं जा सकता । हिंसा का आदि भी अधर्म है, मध्य भी अधर्म है और अंत भी अधर्म है । जिसकी आँखों पर लोभ की पट्टी नहीं बंधी है, जो क्रोध और आवेश अथवा स्वार्थ में अपने कर्तव्य को भूल नहीं गया है, जिसकी आँख साधना की अनिवार्यता से हट कर साध्य पर ही केंद्रित नहीं हो गई है, वह युद्ध जैसे मलिन कर्म में कभी भी प्रवृत्त नहीं होगा । युद्ध में प्रवृत्त होना ही इस बात का प्रमाण है कि मनुष्य अपने रागों का दास बन गया है, फिर जो रागों कि दासता करता है, वह उनका नियंत्रण कैसे करेगा ।
अगर यह कहा जाये कि विजय के लिए युद्ध अवश्यम्भावी है तो विजय को भी कोई बड़ा ध्येय नहीं माना जा सकता। जिस ध्येय कि प्राप्ति धर्म के मार्ग से नहीं की जा सकती, वह या तो बड़ा ध्येय नहीं है अथवा अगर है तो फिर उसे पाप के मार्ग से पाने का प्रयास व्यर्थ है । संग्राम के कोलाहल में चाहे कुछ भी सुनाई नहीं पड़ा हो, किन्तु आज तुमने अपनी आत्मा कि इस पुकार को स्पष्ट सुना होगा कि युधिष्ठिर ! तुम जो चाहते थे वह वस्तु तुम्हे नहीं मिली ।
संग्राम तो जैसे तैसे समाप्त हो गया किन्तु उससे देश भर में हिंसा कि जो मानसिकता फैली, उसका क्या होगा ? क्या लोग हिंसा के खेल को दुहराते जाएँगे अथवा यह विचार कर शांति से काम लेंगे कि शत्रुओं का भी मस्तक उतारना बर्बरता और जंगलीपन का काम है ।
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